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तद्वां॑ नरा स॒नये॒ दंस॑ उ॒ग्रमा॒विष्कृ॑णोमि तन्य॒तुर्न वृ॒ष्टिम्। द॒ध्यङ्ह॒ यन्मध्वा॑थर्व॒णो वा॒मश्व॑स्य शी॒र्ष्णा प्र यदी॑मु॒वाच॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tad vāṁ narā sanaye daṁsa ugram āviṣ kṛṇomi tanyatur na vṛṣṭim | dadhyaṅ ha yan madhv ātharvaṇo vām aśvasya śīrṣṇā pra yad īm uvāca ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। वा॒म्। न॒रा॒। स॒नये॑। दंसः॑। उ॒ग्रम्। आ॒विः। कृ॒णो॒मि॒। तन्य॒तुः। न। वृ॒ष्टिम्। द॒ध्यङ्। ह॒। यत्। मधु॑। आ॒थ॒र्व॒णः। वा॒म्। अश्व॑स्य। शी॒र्ष्णा। प्र। यत्। ई॒म्। उ॒वाच॑ ॥ १.११६.१२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:116» मन्त्र:12 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरा) अच्छी नीतियुक्त सभा सेना के पति जनो ! (याम्) तुम दोनों से (दध्यङ्) विद्या धर्म का धारण करनेवालों का आदर करनेवाला (आथर्वणः) रक्षा करते हुए का संतान मैं (सनये) सुख के भलीभाँति सेवन करने के लिये जैसे (तन्यतुः) बिजुली (वृष्टिम्) वर्षा को (न) वैसे जिस (उग्रम्) उत्कृष्ट (दंसः) कर्म को (आविष्कृणोमि) प्रकट करता हूँ, जो (यत्) विद्वान् (वाम्) तुम दोनों के लिये और मेरे लिये (अश्वस्य) शीघ्र गमन करानेहारे पदार्थ के (शीर्ष्णा) शिर के समान उत्तम काम से (मधु) मधुर (ईम्) शास्त्र के बोध को (ह) (प्रोवाच) कहे (तत्) उसे तुम दोनों लोक में निरन्तर प्रकट करो ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे वृष्टि के विना किसी को भी सुख नहीं होता है, वैसे विद्वानों और विद्या के विना सुख और बुद्धि बढ़ना और इसके विना धर्म आदि पदार्थ नहीं सिद्ध होते हैं, इससे इस कर्म का अनुष्ठान मनुष्यों को सदा करना चाहिये ॥ १२ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे नरा वां युवयोः सकाशाद्दध्यङ्ङाथर्वणोऽहं सनये तन्यतुर्वृष्टिं नेव यदुग्रं दंस आविष्कृणोमि यद्यो विद्वान् वां मह्यं चाश्वस्य शीर्ष्णा मध्वीं ह प्रोवाच तद्युवां लोके सततमाविष्कुर्य्याथाम् ॥ १२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) (वाम्) (नरा) सुनीतिमन्तौ (सनये) सुखसेवनाय (दंसः) कर्म (उग्रम्) उत्कृष्टम् (आविः) प्रादुर्भावे (कृणोमि) (तन्यतुः) विद्युत् (न) इव (वृष्टिम्) (दध्यङ्) दधीन् विद्याधर्मधारकानञ्चति प्राप्नोति सः (ह) किल (यत्) (मधु) मधुरं विज्ञानम् (आथर्वणः) अथर्वणोऽहिंसकस्यापत्यम् (वाम्) युवाभ्याम् (अश्वस्य) आशुगमकस्य द्रव्यस्य (शीर्ष्णा) शिरोवत्कर्मणा (प्र) (यत्) (ईम्) शास्त्रबोधम्। ईमिति पदना०। निघं० ४। २। (उवाच) उच्यात् ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा वृष्ट्या विना कस्यचिदपि सुखं न जायते तथा विदुषोऽन्तरा विद्यामन्तरेण च सुखं बुद्धिवर्धनमेतेन विना धर्मादयः पदार्था न सिध्यन्ति तस्मादेतत्कर्म मनुष्यैः सदाऽनुष्ठेयम् ॥ १२ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे वृष्टीशिवाय कुणालाही सुख मिळू शकत नाही. तसे विद्वान व विद्या याखेरीज सुख मिळत नाही व बुद्धीची वाढ होऊ शकत नाही. त्याखेरीज धर्म इत्यादी गोष्टी सिद्ध होत नाहीत. त्यासाठी या कर्माचे अनुष्ठान माणसांनी सदैव करावे. ॥ १२ ॥